राजस्थान के प्रमुख ऐतिहासिक युद्ध Major historical battles of Rajasthan
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राजस्थान के प्रमुख ऐतिहासिक युद्ध Major historical battles of Rajasthan |
परिचय:
राजस्थान की भूमि सिर्फ अपने महलों और संस्कृति के लिए ही नहीं, बल्कि अपने वीरों की अदम्य साहस और बलिदान की कहानियों के लिए भी जानी जाती है। यहाँ की मिट्टी का हर कण उन ऐतिहासिक युद्धों का साक्षी है, जिन्होंने न केवल इस क्षेत्र बल्कि पूरे भारत के भविष्य को एक नई दिशा दी। आइए, राजस्थान के उन महासंग्रामों की दुनिया में चलते हैं।
राजस्थान के प्रमुख ऐतिहासिक युद्ध :
1. तराइन का युद्ध (The Battles of Tarain) - 1191 और 1192 ई.
तराइन के युद्ध को राजस्थान और उत्तरी भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ माना जाता है। यह युद्ध अजमेर और दिल्ली के चौहान शासक पृथ्वीराज चौहान और ग़ोरी साम्राज्य के शासक मुहम्मद ग़ोरी के बीच लड़े गए थे।
तराइन का प्रथम युद्ध (1191 ई.): इस युद्ध में पृथ्वीराज चौहान की सेना ने मुहम्मद ग़ोरी की सेना को बुरी तरह पराजित किया। ग़ोरी युद्ध के मैदान से बुरी तरह घायल होकर भाग गया। यह राजपूतों की रणनीति और शौर्य की एक शानदार जीत थी। इस जीत ने पृथ्वीराज चौहान को उत्तर भारत का सबसे शक्तिशाली शासक बना दिया।
तराइन का द्वितीय युद्ध (1192 ई.): अपनी हार का बदला लेने के लिए, मुहम्मद ग़ोरी एक साल बाद पूरी तैयारी और एक विशाल सेना के साथ लौटा। दुर्भाग्य से, इस बार पृथ्वीराज चौहान अपने राजपूत सहयोगियों को एकजुट नहीं कर पाए। ग़ोरी ने भोर में हमला करने की रणनीति अपनाई, जब राजपूत सेना तैयार नहीं थी। इस युद्ध में पृथ्वीराज चौहान की हार हुई और उन्हें बंदी बना लिया गया। इस हार ने भारत में तुर्की शासन की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया।
महत्व: तराइन की दूसरी लड़ाई भारत के लिए एक युगांतकारी घटना थी। इसने दिल्ली सल्तनत की नींव रखी और अगले कई सौ वर्षों तक भारत की राजनीति को प्रभावित किया।
2. खानवा का युद्ध (Battle of Khanwa) - 1527 ई.
यह युद्ध मेवाड़ के महान शासक महाराणा सांगा (संग्राम सिंह) और भारत में मुगल साम्राज्य के संस्थापक बाबर के बीच लड़ा गया था। पानीपत की पहली लड़ाई में इब्राहिम लोदी को हराने के बाद बाबर के लिए सबसे बड़ी चुनौती महाराणा सांगा थे, जिन्होंने कई राजपूत शासकों को अपने झंडे के नीचे एकजुट किया था।
युद्ध की पृष्ठभूमि: महाराणा सांगा एक पराक्रमी योद्धा थे, जिनके शरीर पर 80 घाव थे। वे दिल्ली में एक हिंदू साम्राज्य स्थापित करना चाहते थे। बाबर भारत में मुगल शासन स्थापित करने आया था। दोनों की महत्वाकांक्षाओं का टकराव खानवा के मैदान में हुआ, जो आगरा के पास स्थित है।
युद्ध की घटनाएँ: बाबर की सेना संख्या में कम थी, लेकिन उसके पास आधुनिक तोपें और तुलुगमा युद्ध पद्धति थी, जो राजपूतों के लिए नई थी। राजपूत सेना ने बहादुरी से लड़ाई लड़ी, लेकिन तोपखाने के सामने उनकी पारंपरिक युद्ध शैली कमजोर पड़ गई। युद्ध के दौरान महाराणा सांगा घायल हो गए और उन्हें मैदान से हटना पड़ा।
परिणाम और महत्व: इस युद्ध में बाबर की निर्णायक जीत हुई। इस जीत ने भारत में मुगल साम्राज्य की जड़ों को मजबूती से स्थापित कर दिया और राजपूतों की शक्ति को एक बड़ा झटका दिया। यह मध्यकालीन भारत के सबसे महत्वपूर्ण युद्धों में से एक था।
3. गिरी-सुमेल का युद्ध (Battle of Sammel) - 1544 ई.
"मैं मुट्ठी भर बाजरे के लिए हिंदुस्तान की बादशाहत खो देता।" - यह प्रसिद्ध वाक्य दिल्ली के सुल्तान शेरशाह सूरी ने गिरी-सुमेल के युद्ध के बाद कहा था। यह युद्ध मारवाड़ (जोधपुर) के शासक राव मालदेव राठौड़ और शेरशाह सूरी के बीच लड़ा गया था।
युद्ध का कारण: राव मालदेव उस समय उत्तर भारत के सबसे शक्तिशाली हिंदू राजा थे। शेरशाह सूरी उनकी बढ़ती ताकत को अपने लिए खतरा मानता था।
रणनीति और धोखा: शेरशाह सूरी ने राव मालदेव की विशाल सेना को देखकर सीधे टकराव से बचने का फैसला किया। उसने एक चाल चली और मालदेव के शिविर में यह अफवाह फैला दी कि उनके दो वीर सेनापति, जैता और कूंपा, उससे मिल गए हैं। राव मालदेव इस धोखे में आ गए और युद्ध के मैदान से पीछे हट गए।
जैता और कूंपा का पराक्रम: जब जैता और कूंपा को इस विश्वासघात का पता चला, तो उन्होंने अपने ऊपर लगे कलंक को धोने के लिए अपनी छोटी सी टुकड़ी के साथ शेरशाह की 80,000 की सेना पर हमला कर दिया। उन्होंने इतनी वीरता से युद्ध किया कि एक समय शेरशाह की हार निश्चित लग रही थी। अंततः वे वीरगति को प्राप्त हुए, लेकिन उनके पराक्रम ने शेरशाह सूरी को भी हैरान कर दिया।
महत्व: इस युद्ध ने राजपूतों के शौर्य और स्वाभिमान का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किया। भले ही मारवाड़ यह युद्ध हार गया, लेकिन इसने यह साबित कर दिया कि राजपूत योद्धा अपने सम्मान के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं।
4. चित्तौड़गढ़ का तीसरा साका और युद्ध (Siege of Chittorgarh) - 1567-68 ई.
चित्तौड़गढ़ का किला राजपूतों के स्वाभिमान और बलिदान का प्रतीक है। इस किले ने कई आक्रमण झेले, लेकिन 1567-68 में मुगल बादशाह अकबर द्वारा की गई घेराबंदी सबसे विनाशकारी थी। उस समय मेवाड़ के शासक महाराणा उदय सिंह थे।
घेराबंदी: अकबर ने एक विशाल सेना और भारी तोपखाने के साथ किले को घेर लिया। महाराणा उदय सिंह को उनके सलाहकारों ने सुरक्षित स्थान पर जाने के लिए मना लिया ताकि मेवाड़ का वंश आगे बढ़ सके। किले की रक्षा का भार वीर सेनापतियों जयमल और पत्ता को सौंपा गया।
जयमल और पत्ता का बलिदान: कई महीनों तक राजपूतों ने बहादुरी से किले की रक्षा की। जब जयमल अकबर की बंदूक 'संग्राम' से घायल हो गए, तो उन्हें कल्ला राठौड़ ने अपने कंधों पर बिठाकर युद्ध किया। अंततः, जब हार निश्चित हो गई, तो राजपूतों ने अंतिम युद्ध (साका) का फैसला किया।
जौहर और साका: किले के अंदर राजपूत महिलाओं ने रानी फूल कंवर के नेतृत्व में अपनी गरिमा की रक्षा के लिए जौहर (अग्नि में सामूहिक आत्मदाह) किया। इसके बाद, जयमल और पत्ता के नेतृत्व में केसरिया बाना पहनकर राजपूत योद्धा किले के द्वार खोलकर दुश्मनों पर टूट पड़े और वीरगति को प्राप्त हुए।
महत्व: अकबर ने किला तो जीत लिया, लेकिन वह मेवाड़ के स्वाभिमान को नहीं जीत सका। जयमल और पत्ता की वीरता से अकबर इतना प्रभावित हुआ कि उसने आगरा के किले के द्वार पर उनकी हाथी पर सवार मूर्तियाँ स्थापित करवाईं। यह युद्ध मेवाड़ के स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण अध्याय है।
5. हल्दीघाटी का युद्ध (Battle of Haldighati) - 18 जून 1576 ई.
यह युद्ध भारतीय इतिहास के सबसे प्रसिद्ध युद्धों में से एक है। यह महाराणा प्रताप और मुगल बादशाह अकबर की सेना के बीच लड़ा गया था, जिसका नेतृत्व आमेर के राजा मान सिंह कर रहे थे। यह युद्ध सिर्फ दो सेनाओं के बीच नहीं, बल्कि स्वतंत्रता और अधीनता की दो विचारधाराओं के बीच था।
युद्ध का मैदान: यह युद्ध अरावली की पहाड़ियों में एक संकरी घाटी में लड़ा गया, जिसका रंग हल्दी जैसा पीला होने के कारण इसे 'हल्दीघाटी' कहा जाता है।
युद्ध की घटनाएँ: महाराणा प्रताप की सेना संख्या में बहुत कम थी, लेकिन वे अपनी भूमि के भूगोल से अच्छी तरह परिचित थे। उन्होंने मुगलों पर छापामार (गुरिल्ला) युद्ध शैली से हमला किया। इस युद्ध में महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक ने अपनी अद्वितीय स्वामिभक्ति का परिचय दिया। जब महाराणा प्रताप घायल हो गए, तो चेतक उन्हें सुरक्षित स्थान पर ले गया और एक बड़े नाले को पार करने के बाद अपने प्राण त्याग दिए।
परिणाम: युद्ध का परिणाम अनिर्णायक रहा। मुगल सेना न तो महाराणा प्रताप को पकड़ सकी और न ही मेवाड़ पर पूरी तरह से कब्जा कर सकी। युद्ध के बाद, महाराणा प्रताप ने जंगलों में रहकर मुगलों के खिलाफ अपना संघर्ष जारी रखा और अपने जीवनकाल में चित्तौड़गढ़ को छोड़कर लगभग पूरे मेवाड़ को फिर से जीत लिया।
महत्व: हल्दीघाटी का युद्ध जीत-हार से कहीं बढ़कर है। यह महाराणा प्रताप के अदम्य साहस, स्वतंत्रता प्रेम और स्वाभिमान का प्रतीक है, जो आज भी लाखों लोगों को प्रेरणा देता है।
6. रणथम्भौर का युद्ध और साका (Battle of Ranthambore) - 1301 ई.
रणथम्भौर का युद्ध चौहान वंश के स्वाभिमान और हठ का प्रतीक है। यह युद्ध दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी और रणथम्भौर के वीर शासक हम्मीर देव चौहान के बीच लड़ा गया था। हम्मीर देव अपने हठ और शरणागत की रक्षा के लिए प्रसिद्ध थे, जैसा कि कहावत है: "सिंह सवन, सत्पुरुष वचन, कदली फलै इक बार। तिरिया तेल, हम्मीर हठ, चढ़ै न दूजी बार॥"
युद्ध का कारण: हम्मीर देव ने खिलजी के विद्रोही मंगोल सेनापति मुहम्मद शाह को शरण दी थी। जब हम्मीर ने उसे खिलजी को सौंपने से इनकार कर दिया, तो खिलजी ने रणथम्भौर पर आक्रमण कर दिया।
घेराबंदी और विश्वासघात: रणथम्भौर का किला अपनी अभेद्य सुरक्षा के लिए जाना जाता था। खिलजी ने कई महीनों तक किले को घेरे रखा, लेकिन सफल नहीं हो सका। अंत में, उसने छल का सहारा लिया। हम्मीर देव के दो सेनापतियों, रणमल और रतिपाल, को दुर्ग का लालच देकर अपनी ओर मिला लिया। इन दोनों ने धोखे से किले के द्वार खोल दिए।
रणथम्भौर का साका: जब हम्मीर देव को हार निश्चित लगी, तो उन्होंने साका करने का निर्णय लिया। उनकी रानी रंगादेवी के नेतृत्व में राजपूत महिलाओं ने जल-जौहर (जल में कूदकर प्राण देना) किया, जो राजस्थान के इतिहास का पहला प्रामाणिक जौहर माना जाता है। इसके बाद हम्मीर देव और उनके वीर योद्धा केसरिया बाना पहनकर खिलजी की सेना पर टूट पड़े और वीरगति को प्राप्त हुए।
महत्व: यह युद्ध शरणागत की रक्षा के लिए एक शासक के बलिदान की अनूठी मिसाल है। इसने राजपूतों के उसूलों और उनकी वीरता को इतिहास में अमर कर दिया।
7. चित्तौड़गढ़ का प्रथम साका (First Saka of Chittorgarh) - 1303 ई.
चित्तौड़गढ़ का पहला साका रानी पद्मिनी के अद्वितीय सौंदर्य, जौहर और राजपूतों के अविश्वसनीय बलिदान की कहानी है। यह युद्ध दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी और चित्तौड़ के रावल रतन सिंह के बीच हुआ था। इस घटना का वर्णन मलिक मुहम्मद जायसी के महाकाव्य 'पद्मावत' में मिलता है।
युद्ध की पृष्ठभूमि: किंवदंतियों के अनुसार, खिलजी ने रानी पद्मिनी की सुंदरता के बारे में सुना और उन्हें पाने के लिए चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया। हालांकि, ऐतिहासिक कारण खिलजी की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा और चित्तौड़ की सामरिक स्थिति थी।
घेराबंदी और धोखा: खिलजी ने लगभग आठ महीने तक किले को घेरे रखा। जब वह सफल नहीं हो सका, तो उसने संधि का प्रस्ताव रखा और रावल रतन सिंह को धोखे से बंदी बना लिया। उसने रानी पद्मिनी के बदले राजा को छोड़ने की शर्त रखी।
गौरा और बादल का पराक्रम: इस संकट के समय, रानी पद्मिनी ने अपने दो वीर सेनापतियों, गौरा और बादल (जो रिश्ते में चाचा-भतीजे थे) के साथ एक योजना बनाई। उन्होंने खिलजी को संदेश भेजा कि रानी अपनी दासियों के साथ आ रही हैं। पालकियों में दासियों की जगह सशस्त्र सैनिक भेजे गए, जिन्होंने खिलजी के शिविर पर हमला कर रावल रतन सिंह को छुड़ा लिया। इस लड़ाई में गौरा वीरगति को प्राप्त हुए।
जौहर और साका: अपनी इस चाल से बौखलाए खिलजी ने किले पर भीषण आक्रमण किया। जब राजपूतों के लिए किले की रक्षा करना असंभव हो गया, तो रानी पद्मिनी के नेतृत्व में 16,000 राजपूत महिलाओं ने अपनी आन-बान और सम्मान की रक्षा के लिए जौहर की ज्वाला में खुद को समर्पित कर दिया। इसके बाद रावल रतन सिंह और बादल के नेतृत्व में राजपूत योद्धाओं ने साका किया और लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हुए।
महत्व: यह युद्ध सिर्फ एक सैन्य हार नहीं थी, बल्कि यह राजपूतों के बलिदान, उनकी स्त्रियों के आत्म-सम्मान और अपनी मातृभूमि के प्रति उनके प्रेम की अमर गाथा है।
8. दिवेर का युद्ध (Battle of Dewair) - 1582 ई.
हल्दीघाटी के युद्ध के बाद जहाँ मुगलों का पलड़ा भारी लग रहा था, वहीं दिवेर के युद्ध ने कहानी को पलट दिया। इस युद्ध को "मेवाड़ का मैराथन" (Marathon of Mewar) भी कहा जाता है। यह महाराणा प्रताप की एक शानदार वापसी और मुगलों पर एक निर्णायक जीत थी।
युद्ध की पृष्ठभूमि: हल्दीघाटी के बाद महाराणा प्रताप ने अरावली की पहाड़ियों में रहकर अपनी सेना को फिर से संगठित किया और मुगलों के खिलाफ छापामार युद्ध जारी रखा। 1582 में, विजयादशमी के दिन, उन्होंने मुगलों के प्रमुख थाने 'दिवेर' पर आक्रमण करने की योजना बनाई।
अमर सिंह का शौर्य: दिवेर का मुगल थानेदार सुल्तान खान था। इस युद्ध में महाराणा प्रताप के पुत्र अमर सिंह ने अद्वितीय शौर्य का प्रदर्शन किया। उन्होंने अपने भाले से ऐसा प्रहार किया कि वह सुल्तान खान और उसके घोड़े को चीरता हुआ जमीन में जा धंसा। यह दृश्य देखकर मुगल सेना में भगदड़ मच गई।
परिणाम और महत्व: दिवेर के युद्ध में महाराणा प्रताप की सेना ने मुगलों को बुरी तरह पराजित किया। इस जीत ने मेवाड़ के सैनिकों में एक नया जोश भर दिया। इसके बाद, महाराणा प्रताप ने एक-एक करके मेवाड़ के उन सभी 36 थानों पर कब्जा कर लिया जो मुगलों के अधीन थे। कुछ ही वर्षों में, चित्तौड़ और मांडलगढ़ को छोड़कर, उन्होंने अपना पूरा राज्य पुनः प्राप्त कर लिया। यह युद्ध महाराणा प्रताप के संघर्ष और उनकी कभी न हार मानने वाली भावना का प्रतीक है।
सारांश:
युद्ध का नाम | वर्ष | किसके बीच | परिणाम/महत्व |
---|---|---|---|
तराइन का द्वितीय युद्ध | 1192 ई. | पृथ्वीराज चौहान vs मुहम्मद ग़ोरी | भारत में तुर्की शासन की स्थापना |
रणथम्भौर का युद्ध | 1301 ई. | हम्मीर देव चौहान vs अलाउद्दीन खिलजी | खिलजी की जीत, हम्मीर देव का बलिदान |
चित्तौड़गढ़ का प्रथम साका | 1303 ई. | रावल रतन सिंह vs अलाउद्दीन खिलजी | खिलजी की जीत, रानी पद्मिनी का जौहर |
खानवा का युद्ध | 1527 ई. | महाराणा सांगा vs बाबर | भारत में मुगल साम्राज्य की नींव मजबूत हुई |
गिरी-सुमेल का युद्ध | 1544 ई. | राव मालदेव vs शेरशाह सूरी | शेरशाह सूरी की कठिन जीत |
चित्तौड़गढ़ का तीसरा साका | 1567-68 ई. | महाराणा उदय सिंह vs अकबर | मुगलों की जीत, जयमल-पत्ता का बलिदान |
हल्दीघाटी का युद्ध | 1576 ई. | महाराणा प्रताप vs अकबर (मान सिंह) | अनिर्णायक, स्वतंत्रता संग्राम का प्रतीक |
दिवेर का युद्ध | 1582 ई. | महाराणा प्रताप vs मुगल सेना | महाराणा प्रताप की निर्णायक जीत |
निष्कर्ष (Conclusion)
राजस्थान के इतिहास में रणथम्भौर के हठ, चित्तौड़ के जौहर और दिवेर के पराक्रम को जोड़कर यह तस्वीर और भी स्पष्ट हो जाती है कि यह भूमि केवल युद्धों की ही नहीं, बल्कि सिद्धांतों और आदर्शों की भी भूमि रही है। यहाँ के योद्धाओं ने न केवल तलवार से, बल्कि अपने चरित्र और बलिदान से भी इतिहास लिखा है। ये युद्ध हमें सिखाते हैं कि परिस्थितियाँ कितनी भी विपरीत क्यों न हों, साहस और आत्म-सम्मान के साथ लड़ा गया संघर्ष हमेशा याद रखा जाता है।
FAQ:
1. राजस्थान का सबसे प्रसिद्ध युद्ध कौन सा है?
हल्दीघाटी का युद्ध (1576) राजस्थान का सबसे प्रसिद्ध युद्ध माना जाता है, जो महाराणा प्रताप के शौर्य और स्वतंत्रता के प्रति उनके संघर्ष का प्रतीक है।
2. खानवा के युद्ध में महाराणा सांगा की हार का मुख्य कारण क्या था?
महाराणा सांगा की हार का मुख्य कारण बाबर द्वारा इस्तेमाल की गई आधुनिक युद्ध तकनीक थी, जिसमें तोपखाना और तुलुगमा युद्ध पद्धति शामिल थी, जो राजपूतों के लिए नई थी।
3. 'साका' और 'जौहर' क्या है?
जब युद्ध में हार निश्चित हो जाती थी, तो राजपूत महिलाएं दुश्मनों से अपनी गरिमा की रक्षा के लिए आग में कूदकर सामूहिक आत्मदाह करती थीं, जिसे 'जौहर' कहते थे। इसके बाद पुरुष केसरिया वस्त्र पहनकर अंतिम युद्ध के लिए निकल पड़ते थे, जिसे 'साका' कहा जाता था।
4. चेतक कौन था और वह क्यों प्रसिद्ध है?
चेतक, महाराणा प्रताप का प्रिय और वीर घोड़ा था। वह हल्दीघाटी के युद्ध में अपनी स्वामिभक्ति और वीरता के लिए प्रसिद्ध है, जब उसने घायल महाराणा को सुरक्षित स्थान पर पहुँचाने के लिए एक 22 फुट चौड़े नाले को छलांग लगाकर पार किया था।
5. गिरी-सुमेल के युद्ध को क्यों याद किया जाता है?
गिरी-सुमेल का युद्ध मारवाड़ के सेनापतियों जैता और कूंपा के अद्वितीय शौर्य और बलिदान के लिए याद किया जाता है, जिन्होंने अपनी छोटी सी सेना के साथ शेरशाह सूरी की विशाल सेना को लगभग पराजित कर दिया था।
आपको राजस्थान के इन ऐतिहासिक युद्धों में से किस योद्धा की कहानी ने सबसे ज्यादा प्रेरित किया? अपनी राय नीचे कमेंट्स में जरूर बताएं और इस गौरवशाली इतिहास को अपने दोस्तों के साथ शेयर करना न भूलें!